बस्तर में 75 दिनों तक चलने वाले दशहरे का आरम्भ राजा पुरुषोत्तम देव ने किया था। बस्तर का दशहरा श्री राम के रावण पर विजय की ख़ुशी में नहीं मनाया जाता बल्कि यह राजा पुरुषोत्तम देव के जगन्नाथ यात्रा और रथपति की उपाधि मिलने की मनाया जाता है।
यह श्रावण मास की आमावस्या से अश्विन शुक्ल त्रयोदशी तक मनाया जाता है।
बस्तर दशहरे के उत्सव में मनाये जाने वाले पर्व इस प्रकार हैं:-
- पाटा जात्रा (लकड़ी पुजा)
- डेरी गड़ाई (खम्बे स्थापना)
- काछिन गादी
- कलश स्थापना
- जोगी बिठाई
- रथ परिक्रमा
- निशा जात्रा
- जोगी उठाई
- मावली परघाव
- भीतर रैनी
- बहार रैनी
- काचन जात्रा
- मुरिया दरबार
- ओहाड़ी
पाटा जात्रा (लकड़ी पूजा):-
हरेली अमावस्या के दिन लकड़ी का एक लट्ठा राजमहल के सिंह द्वार पर रखा जाता है, जिससे रथ का निम्न होना है। उस लकड़ी के लठ्ठे को "टुरलु खोटला" कहा जाता है। बलि के खून से इसे पवित्र किया जाता है इस अनुष्ठान से बस्तर दशहरा की शुरुआत होती है।
डेरी गढ़ाई (खंबे की स्थापना):-
भादो मास के 12 दिन 2 खम्बों की स्थापना सीरासार में की जाती है।
काछिन गादी (काछिन देवी का सिंहासन):-
कुंवार मास की अमावस्या के दिन महारा जनजाति समुदाय की एक नाबालिक लड़की को कांटो की बिस्तर पर लिटाया जाता है। माना जाता है कि उस पर काछिन देवी आती हैं, जो तलवार लहराती है और तथा राजा को एक पुष्प प्रदान करती है, जो उसके मंजूरी का प्रतीक होती है कि त्योहार को आगे बढ़ाया जाए।
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काछिन-गादी |
कलश यात्रा:-
कुंवार मास के शुक्ल पक्ष के पहले दिन नवरात्रि के शुरुआत के साथ जगदलपुर में दंतेश्वरी, मावली और कंकालिन माता मंदिरों में कलश की स्थापना की जाती है। ब्राह्मणों की एक टोली अगले 9 दिन तक बिना रुके रात दिन तक भजन-कीर्तन करते हैं।
जोगी बिठाई:-
हल्बा जनजाति का एक युवक कंधे तक गहरी एक गड्ढे में बैठाया जाता है, जो लगातार 9 दिन तक उसमे बैठा रहता है। यह वास्तव में त्यौहार को सफल बनाने के लिए एक तपस्या होती है।
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जोगी-बिठाई |
रथ परिक्रमा:-
जोगी बिठाई के एक दिन बाद कुंवार शुक्ल-पक्ष द्वितीया से चार चक्का वाला फूलों का रथ हर शाम को मावली मंदिर में चक्कर लगाता है, यह कुंवार शुक्ल-पक्ष सप्तमी तक चलता है। वर्तमान में चार पहियों वाला रथ दैनिक रथ है तथा 8 पहिया वाला 10 वे एवं 11 वे दिन के लिए होता है। आठवें और नौवें दिन विश्राम होता है।
निशा जात्रा:-
कुंवार माह के अष्टमी तिथि तथा नवमी तिथि को रथ परिक्रमा नहीं होती। इस दिन आँचलिक देवी-देवताओं के सम्मान में बलि देकर प्रसन्न करने का दिन होता है। आधी रात को निशा-जात्रा रस्म पर बकरों के अलावा कुम्हड़ा और मछली की बलि दी जाती है। लोगों का मानना है कि इससे अंचल में देवी की कृपा बनी रहती है। यहाँ 12 बकरों की बलि दी जाती है।
जोगी उठाई:-
कुंवार मास के नवमी के दिन जोगी को गड्ढे से उठा कर सम्मानित किया जाता है।
मावली परघाव:-
दन्तेवाड़ा से मावली देवी आमंत्रण पाकर दशहरा में शामिल होने जगदलपुर डोली पर सवार होकर आती हैं। मावली देवी की अगुवानी या स्वागत को ही मावली परघाव कहा जाता है। बस्तर में मावली को प्रमुख देवी के रूप में पूजा की जाती है।
भीतर रैनी:-
विजया दशमी को 8 पहियों वाला रथ मावली मंदिर के आसपास परिक्रमा करता है। रथ के ऊपरी भाग में झूला होता है जहां राजा माई की छतरी लेकर बैठते हैं। मंदिर की परिक्रमा के बाद रात को माड़िया आदिवासी रथ को चुरा कर कुम्हड़ाकोट ले जाते हैं, जो कि इंद्रावती के दक्षिण में स्थित है।
बाहर रैनी:-
कुंवार मास के 11 दिन उसी रथ को वापस लेन राजपरिवार, मुड़िया, चालकी, मांझी, मुखिया कुम्हड़ाकोट जाते हैं। कुम्हड़ाकोटपहुंचकर देवी को नए फसल से बने चावल का भोजन अर्पण करते हैं। फिर हर्ष-उल्लास के साथ मुख्य सड़क से खींचते हुए महल के सिंह द्वार तक ले आते है।
काचन जात्रा:-
12 दिन का काछिन देवी की समारोह सफल करने के लिए धन्यवाद दिया जाता है।
मुरिया दरबार:-
मुरिया जनजाति प्रमुख जनता के कल्याण से संबंधित निर्वाचित प्रतिनिधियों और प्रशासनिक अधिकारियों के साथ विचार विमर्श करते हैं पहले राजा के समक्ष अपने समस्याएं और मांग रखते थे।
ओहाड़ी:-
अश्विन मास के 13 दिन बस्तर के विभिन्न भाग से लाए गए देवी देवताओं को समारोह पूर्वक विदाई दी जाती है दंतेवाड़ा से लाई गई मावली माता के नए कपड़े और गहने से सजाकर दंतेवाड़ा के लिए किया जाता है
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